एक मुसाफिर - Poem by Nitesh K. mahlawat

11:58 Unknown 0 Comments




हीरा बनकर भी तू, अंगूठी में जड़ा रह गया, 


मुसाफिर आगे निकल गए तू खड़ा रह गया |


कभी सूरज सा जला कभी 
सरिता सा बहा 

कभी बादल सा जिया कभी कविता सा कहा 


बरसात के एहसासों को घड़ता रह गया 


सावन आगे निकल गया तू खड़ा रह गया |


ख्यालों में जगा, नींदों में रहा 


आसमानों में जिया, पागल सा कहा, 


अनजाने सपनो को पढता रह गया 


नैना आगे निकल गए तू खड़ा रह गया |


बनकर मूरत
 सा मंदिर में पड़ा रह गया .....(ईश्वर)

मैं दरवाजे पर था तू खड़ा रह गया, 


तू कुछ न बोला और सब जाम भर गया 


तू खुदा बन गया मैं ख़ालिक़ रह गया । 





----------नितेश र महलावत--------







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